आधुनिक युग है और इसी के अनुसार जमाने की चाल भी बदल रही है। मनोरंजन के साधन बदल गए और रिश्ते-नातों के मायने भी बदल गए। संबंधों की गरमाहट अब उतनी गुनगुनी नहीं लगती और दिखावे का जैसे बोलबाला है। ऐसी परिस्थितियों में परिवार का भविष्य सभी सदस्यों के दृष्टिकोण से कैसा होगा, इस पर खुली बहस करना भी मुश्किल होता जा रहा है। खासतौर पर युवाओं के दृष्टिकोण से। युवा साथी चाहते हैं अपनी तरह से जिंदगी जीना और निश्चित रूप से इसमें परिवार भी शामिल रहता है। परंतु सामाजिक माहौल ऐसा हो गया कि परिवार यह समझकर ही चलता है कि भविष्य में बच्चे हमें पूछेंगे या नहीं? सवाल बड़ा गंभीर है और विचारणीय भी, इस पर बहस भी की जा सकती है। समाज के सामने ऐसे कई उदाहरण भी हैं, जिनसे यह मानस बनता है कि बच्चे हमें भविष्य में पूछेंगे या नहीं? ऐसी स्थिति क्यों आई? हम अपने मन में सामाजिक डर क्यों पाले बैठे हैं? डर की बैसाखी के सहारे हम भविष्य की सुनहरी चाल का सपना देख रहे हैं, जिसमें केवल खुद के बारे में सोच रहे हैं। भविष्य सुनहरा हो, इसलिए हम अपनों के लिए यह सोचें कि वे हमारा साथ नहीं देंगे, यह भी अपनी ओर से तो गलत है। प्रत्येक युवा के मन में आगे बढ़ने के सपने होते हैं, पर इस आगे बढ़ने में परिवार भी शामिल होता है। युवा साथी पैसा कमाना चाहते हैं और इससे खुशी खरीदना चाहते हैं। इसमें निश्चित रूप से परिवार भी शामिल हैं। नई राह और नए जोश के साथ प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते युवा साथी पर विश्वास करें, निश्चित रूप से वह अपने सामाजिक सरोकारों के साथ ही पारिवारिक मूल्यों के साथ भी न्याय जरूर करेगा। दरअसल, विश्वास दोनों तरफ से जरूरी है, घरवाले भी करें और युवा साथी भी घरवालों पर विश्वास करें। विश्वास की बुनियाद पर संस्कारों के साथ आगे बढ़ते युवा साथी परिवार का नाम रोशन करेंगे, पर जहां विश्वास का संकट हो, वहां सबकुछ उल्टी दिशा में चलता है। प्रगति और सफलता होती है, पर वह अकेले की होती है। उसमें सामूहिकता और परिवार की सफलता की बात नहीं होती। सफलता और असफलता दोनों के सामने अकेले ही खड़े रहें, तब उसके प्रवाह के सामने व्यक्ति के बह जाने का डर होता है। इस कारण अगर समूह सामने होता है, तब प्रवाह का वेग अलग-अलग धाराओं में बह जाता है, जिससे व्यक्ति के हिस्से में बराबर उसकी क्षमता के अनुरूप ही धारा का प्रवाह आता है। युवा साथी भले ही अपने दम पर सफलता प्राप्त करना चाहते हों वह भी पैसों के बल पर, तब तक सबकुछ ठीक रहता है, पर जहां असफलता आती है, वे एकदम भर-भराकर गिर पड़ते हैं या टूटने लगते हैं। स्वयं में बिखराव भी महसूस करने लगते हैं। ऐसा क्या कारण है कि सफलता के आवेग को वे मजबूती के साथ सह लेते हैं, पर जरा सी असफलता में व्यथित हो जाते हैं। बात बिलकुल सीधी सादी है, अगर आप सभी पर विश्वास करेंगे अपनी सफलता और असफलता, सुख-दुख सभी के साथ बांटेगे, तब आप भी समाज और परिवार से वैसा ही पाएंगे। बस, आप विश्वास करके तो देखें।